

फ़िल्म कोरा कागज़ आशुतोष मुखोपाध्याय के बांग्ला उपन्साय सात पाके बांधा पर आधारित थी। इसी नाम से इस उपन्यास पर बंगाली भाषा में पहले ही एक फ़िल्म बन चुकी थी। उस फ़िल्म में सुचित्रा सेन व सौमित्र चटर्जी ने मुख्य भूमिकाएं निभाई थी। जब अनिल गांगुली ने सात पाके बांधा देखी थी तो उन्हें वो बहुत पसंद आई थी। उन्होंने तय किया कि जब भी किस्मत उन्हें मौका देगी, वो इस फ़िल्म को हिंदी में ज़रूर बनाएंगे।
सात पाके बांधा, यानि सात फेरों का बंधन। ये एक दुखांत कहानी थी। इस कहानी में नायिका जीवन भर नायक की प्रतीक्षा करती रह जाती है। उसकी प्रतीक्षा कभी खत्म नहीं होती। अनिल गांगुली जानते थे कि हिंदी दर्शक इतना दुखांत विषय पसंद नहीं करेंगे। इसलिए उन्होंने अपने लेखकों से इस कहानी को सुखांत बनवाया। कहानी का दुखांत हिस्सा फ्लैशबैक में फ़िल्म के शुरू में दिखाया गया। अनिल गांगुली ने अपनी फ़िल्म का नाम रखा कोरा कागज़।
सात पाके बांधा में एक भी गीत नहीं था। लेकिन कोरा कागज़ में तीन गीत थे। सात पाके बांधा की अंतहीन प्रतीक्षा फ़िल्म कोरा कागज़ में पति-पत्नी के अलगाव और पुनर्मिलन की कहानी बन गई। कोरा कागज़ का निर्माण इसके निर्माात व निर्देशक, दोनों के लिए चुनौतीपूर्ण था। इस फ़िल्म के निर्माता थे सनद कोठारी। वो एक व्यवसायी थे। उस वक्त उन्हें फ़िल्म निर्माण का बहुत ख़ास तजुर्बा भी नहीं था। यानि नए-नए निर्माता थे। उन्होंने अलविदा नाम से एक फ़िल्म का निर्माण किया था। मगर वो फ्लॉप हो गई थी।
कोरा कागज़ की मुख्य भूमिकाओं के लिए अनिल गांगुली की पहली पसंद थे विनोद खन्ना व तनुजा। जब उन्होंने तनुजा को इस फ़िल्म की कहानी सुनाई तो तनुजा ने इसमें काम करने से इन्कार कर दिया। फिर तनुजा जी की मां शोभना समर्थ जी ने निर्माता सनद कोठारी को मशविरा दिया कि उन्हें पूना फ़िल्म इंस्टीट्यूट से आए कलाकारों को आज़माना चाहिए। शोभना समर्थ जी ने ही सनद कोठारी को हीरोइन के रोल के लिए जया भादुड़ी का नाम सुझाया था। इस वक्त तक गुड्डी व उपहार जैसी फ़िल्मों के ज़रिए जया भादुड़ी अपनी पहचान बना चुकी थी।
शोभना समर्थ की सलाह डायरेक्टर अनिल गांगुली व प्रोड्यूसर सनद कोठारी को अच्छी लगी। इन लोगों ने जया भादुड़ी से बात की। पर क्योंकि सनद कोठारी ज़रा छोटे प्रोड्यूसर थे तो शुरुआत में जया भादुड़ी उन्हें गंभीरता से नहीं ले रही थी। मगर एक दिन जब अनिल गांगुली जया भादुड़ी से मिलने गए तो जया जी ने कहा कि अगर कहानी अच्छी होगी तो वो पैसों को ज़्यादा अहमियत नहीं देंगी। तब अनिल गांगुली ने उन्हें कहानी सुनाई। जया जी को कहानी बड़ी पसंद आई। और उन्होंने कोरा कागज़ में काम करने की हामी भर दी। ये भी कमाल की बात है कि आगे चलकर इस फ़िल्म के लिए जया जी को फ़िल्मफ़ेयर बेस्ट एक्ट्रेस अवॉर्ड मिला था।
हीरोइन के तौर पर जया भादुड़ी को तो साइन कर लिया गया। मगर अब हीरो की समस्या खड़ी हो गई थी। क्योंकि अब तक तो डायरेक्टर और प्रोड्यूसर विनोद खन्ना को साइन करने की प्लानिंग कर रहे थे। लेकिन जया भादुड़ी के अपोज़िट विनोद खन्ना को साइन करना मुश्किल था। जोड़ी जमती दिख ही नहीं रही थी इन दोनों की। एक और वजह थी। विनोद खन्ना उस वक्त तक अधिकतर खलनायकी वाले किरदारों में ही फ़िल्मों में नज़र आते थे। एक संवेदनशील प्रोफ़ेसर के रोल में विनोद खन्ना जंचते कि नहीं, इस पर संशय था।
उन दिनों पूना फ़िल्म इंस्टीट्यूट से आए कई लड़के नाम बना रहे थे। मगर उनको साइन करने का प्रयास करते तो फ़िल्म का बजट डगमगाने का खतरा हो जाता। किसी नए और अनजान चेहरे को लिया जाता तो फ़िल्म ना चलने का खतरा रहता। इसी दौरान किसी ने अनिल गांगुली को विजय आनंद का नाम सुझाया। अपने भाई देवानंद की फ़िल्म “तेरे मेरे सपने” में विजय आनंद ने भी अभिनय किया था। और विजय आनंद बहुत प्रभावी नज़र भी आए थे। अनिल गांगुली को लगा कि प्रोफ़ेसर के किरदार में विजय आनंद जम जाएंगे।
जब विजय आनंद से इस फ़िल्म के बारे में बात करने के लिए फ़ोन किया गया तो उन्हें लगा कि शायद अनिल गांगुली उनसे किसी फ़िल्म का डायरेक्शन कराना चाहते हैं। इसलिए उन्होंने कहा,”फिलहाल मैं कोई फ़िल्म डायरेक्ट करने की स्थिति में हूं।” मगर जब अनिल गांगुली ने उन्हें बताया कि फ़िल्म डायरेक्ट नहीं करनी है, फ़िल्म में हीरो के तौर पर काम करना है, तो विजय आनंद बहुत खुश हुए। उन्होंने अनिल गांगुली और सनद कोठारी से कहा,”जल्द से जल्द आप मुलाकात कीजिए। मैं आपका इतंज़ार कर रहा हूं।” जया भादुड़ी को जब पता चला की विजय आनंद को हीरो लिया जा रहा है तो वो भी बहुत खुश हुई। क्योंकि वो भी विजय आनंद की प्रतिभा की कायल थी और उनके साथ काम करना चाहती थी।
यूं कोरा कागज़ के दोनों मुख्य कलाकार साइन कर लिए गए। फटाफट अन्य कलाकारों का चयन भी कर लिया गया। ये कलाकार थे ए.के.हंगल, अचला सचदेव, नाज़नीन, दिनेश हिंगू, देवेन वर्मा, रमेश देव, सीमा देव, सुलोचना लाटकर, अरविंद राठोड़ व मास्टर शाहिद। संगीत का ज़िम्मा दिया गया कल्याणजी-आनंदजी को। एम.जी.हशमत के लिखे कुल तीन गीत ही इस फ़िल्म में हैं। हालांकि पहले सिर्फ़ दो गीत ही रखे जाने की योजना थी। क्योंकि दो गीतों की सिचुएशन ही इस फ़िल्म में थी। लेकिन गीत “मेरा पढ़ने में नहीं लागे दिल” कल्याणजी-आनंदजी ने इस फ़िल्म में रखवाया।
एक दिन कल्याणजी भाई ने कोरा कागज़ के डायरेक्टर-प्रोड्यूसर अनिल गांगुली-सनद कोठारी को बुलाकर ये गीत सुनवाया। और कहा कि इस गीत को अपनी फ़िल्म में रखिए। क्योंकि ये गाना ज़रूर हिट होगा। निर्माता सनद कोठारी को गीत वाकई में बढ़िया लग रहा था। लेकिन समस्या ये थी कि इस गाने की थीम ऐसी थी जो कोरा कागज़ की नायिका के व्यक्तित्व से कतई मैच नहीं कर रही थी। क्योकि नायिका एक गंभीर महिला थी। मगर ये गीत किसी चुलबुली लड़की के हिसाब का था। इसलिए गीत को फ़िल्म में कैसे फ़िट किया जाए, ये चुनौती खड़ी हो रही थी। लेकिन इसका तोड़ भी निकाला गया।
गीत की शुरुआत नायिका से नहीं, उसकी छोटी बहन से होती है। नायिका भी गीत में नज़र आती है। नायिका की छोटी बहन उसे छेड़ते हुए ये गीत गा रही है। छोटी बहन गीत का मुखड़ा गाती है। फिर अंतरे से नायिका भी गाने में शामिल हो जाती है। ये गीत लता जी ने गाया था। दोनों बहनों की आवाज़ लता जी ही बनी थी। मज़ेदार बात ये है कि लता जी ने इतनी खूबसूरती से ये गीत गाया कि किसी के मन में ये सवाल नहीं उठा कि दोनों बहनों की आवाज़ एक कैसे हो गई?
कोरा कागज़ के संगीत से जुड़ी एक और बात जान लीजिए। पहले पंचम दा को इस फ़िल्म का संगीत कंपोज़ करने की ज़िम्मेदारी दी गई थी। पंचम दा ने खुशी-खुशी तब ज़िम्मेदारी ले भी ली थी। मगर फिर पंचम दा इतने बिज़ी हो गए कि कोरा कागज़ के लिए वो समय निकाल ही नहीं पाए। कई हफ़्तों के इंतज़ार के बावजूद वो कोरा कागज़ के लिए कोई धुन नहीं बना सके। निर्माता-निर्देशक जब भी फ़िल्म के संगीत के बारे में बात करने उनके पास जाते, पंचम दा उन्हें अगले सप्ताह आने को कह देते।
एक दिन परेशान होकर अनिल दा ने पंचम दा से कहा कि अगर आपको ऐतराज़ ना हो तो क्या कल्याणजी-आनंदजी को संगीत की ज़िम्मेदारी दे दी जाए? पंचम दा फौरन इसके लिए तैयार हो गए। यूं कोरा कागज़ पंचम दा से कल्याणजी-आनंदजी के पास चली गई। और कल्याणजी-आनंदजी ने भी बहुत शानदार म्यूज़िक कोरा कागज़ के लिए तैयार किया।
अगर आपने कोरा कागज़ देखी होगी तो आपको याद होगा कि विजय आनंद का किरदार सुकेश किसी दार्शनिक के जैसे बात करता है। सुकेश के संवादों में ओशो का प्रभाव महसूस होता है। और ये बात तो सभी जानते हैं कि एक वक्त पर विजय आनंद ओशो के शिष्य बन गए थे। बाद में वो ओशो से अलग ज़रूर हो गए थे। मगर जिस वक्त कोरा कागज़ में उन्होंने काम किया था उस वक्त तक वो ओशो से बहुत प्रभावित रहते थे। ओशो से संन्यास लेकर उन्होंने गेरुए वस्त्र पहनने शुरू कर दिए थे।
कहा जाता है कि विजय आनंद ने ओशो के विचारों को इस फ़िल्म के अपने संवादों के ज़रिए व्यक्त करने की कोशिश की थी। विजय आनंद उस दौर के बहुत बड़े और प्रतिभाशाली डायरेक्टर थे। मगर एक्टिंग से भी उन्हें बहुत लगाव था। इसलिए डायरेक्शन के ज़रिए फ़िल्मों में नाम कमाने के बाद वो मन ही मन एक्टर, खासतौर पर हीरो बनने के लिए लालायित रहते थे। एक दफ़ा एक इंटरव्यू में कोरा कागज़ के डायरेक्टर अनिल गांगुली साहब ने बताया था कि कोरा कागज़ की कहानी से विजय आनंद बहुत प्रभावित नहीं थे। इस फ़िल्म में उन्हें अपना किरदार नायक नहीं, खलनायक ज़्यादा लगता था। वो अपने किरदार में बदलाव भी कराना चाहते थे।
विजय आनंद का विचार था कि “मेरा जीवन कोरा कागज़” गीत हीरो को गाते हुए दिखाया जाना चाहिए। कुछ और बदलाव भी विजय आनंद स्क्रिप्ट में कराना चाहते थे। मगर जब अनिल गांगुली ने उनके सुझावों को नज़रअंदाज़ करके अपने तरीके से ही फ़िल्म बनाते रहने का फ़ैसला किया तो विजय आनंद निराश हो गए। “मेरा जीवन कोरा कागज़” गाया तो किशोर दा ने था। मगर उस गीत में दिखाई देती हैं जया भादुड़ी। कोरा कागज़ जब रिलीज़ हुई और सफ़ल साबित हुई तो विजय आनंद को बहुत हैरत हुई। उन्होंने अनिल गांगुली से कहा भी,”यार अनिल, अपनी फ़िल्म तो कामयाब हो गई। कमाल है यार।”
कोरा कागज़ में टिपिकल बॉलीवुड मसाला एलिमेंट्स नहीं थे। मगर फिर भी बॉक्स ऑफ़िस पर ये फ़िल्म कामयाब साबित हुई थी। कोरा कागज़ को बेस्ट फ़िल्म का राष्ट्रपति पुरस्कार हासिल हुआ था। डायरेक्टर अनिल गांगुली साहब को बहुत सराहा गया। राजश्री प्रोडक्शन्स ने अनिल गांगुली को अपनी फ़िल्म तपस्या के डायरेक्शन के लिए साइन किया था। और प्रोड्यूसर जी.पी.सिप्पी जी ने भी अनिल दा को अपनी फ़िल्म तृष्णा के लिए साइन किया। तपस्या फ़िल्म के लिए तो फिर से अनिल दा को राष्ट्रपति पुरस्कार मिला था।
बॉलीवुड में बहुत कम फ़िल्में बनी हैं जिन्होंने दांपत्य जीवन में आने वाली समस्याओं को बहुत प्रभावी ढंग से उठाया गया है। कोरा कागज़ उन चंद फ़िल्मों में से एक है। कल ही इस फ़िल्म के 51 साल पूरे हुए हैं। 10 मई 1974 को कोरा कागज़ रिलीज़ हुई थी।

Author: Red Max Media
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